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दर्द कागज़ पर मेरा बिकता रहा...

दर्द कागज़ पर मेरा बिकता रहा मैं बैचैन था रातभर लिखता रहा.... छू रहे थे सब बुलंदियाँ आसमान की मैं सितारों के बीच, चाँद की तरह छिपता रहा.... दरख़्त होता तो, कब का टूट गया होता मैं था नाज़...