मैं हर बार गिरा और सम्भलता रहा....

मैं हर बार गिरा और सम्भलता रहा,
दौर खुदा की रहमतों का चलता रहा,

वक़्त भले ही मेरे विपरीत था,
मैं ना जरा सा भी भयभीत था,
मुझे यकीं था की एक दिन सूरज जरूर निकलेगा,
क्या हुआ जो वो हर रोज ढलता रहा,
मैं हर बार गिरा और सम्भलता रहा,

जब भी हुआ है दीपक में तेल खत्म,
तो समझो हो गया खेल खत्म,
निचोड़ कर खून रगों का इसमें,
मैं एक दीपक की भाँति जलता रहा,
मैं हर बार गिरा और सम्भलता रहा,

झिलमिल से ख्वाब थे इन निगाहों में,
करता रहा महनत माँ की दुआओं में,
सींचता रहा परिश्रम के पौधे को दिन रात,
और ये पौधा सफलता के पेड़ में बदलता रहा,
मैं हर बार गिरा और सम्भलता रहा,

ये सब तुम्हारी सबकी दुआओं का असर है,
जो मिली आज इतनी सुहानी डगर है,
तह दिल से शुक्रिया मेरे चाहने वालों,
आज मेरी किस्मत का सिक्का उछलता रहा,
मैं हर बार गिरा और सम्भलता रहा,
दौर खुदा की रहमतों का चलता रहा।

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