मजदूर का बेटा

हम साथ साथ पढ़ते तब , 8 वीं की बात रही होगी, मेरी टक्कर हमेशा से ही उससे हो जाती थी, और मैं हमेशा उससे हार जाता था। खेल में, कक्षा के रिजल्ट के स्थान में, हमेशा वो मुझसे बाजी मार लेता था। मुझे इस बात से उससे चिढ़ हो गई थी, वो मजदूर का बेटा ,और मैं सरकारी कर्मचारी का बेटा हमारी बराबरी कैसे हो सकती थी, बल्कि वो तो मुझसे दो कदम आगे ही रहता था। मेरी बार बार की हार मुझे तिलमिला देती थी, मैंने एक दिन अपनी हार का बदला ले लिया उससे, जब कक्षा में कोई नहीं था उसके बस्ते से उसकी दो किताबें निकाल कर फाड़ दी। जब उसने अपना बस्ता सम्भाला तो फ़टी हुई किताबें देखकर उसकी आँखों से झर्र झर्र आंसू बहने लगे। उसने केवल रोती हुई आंखों से मुझे देखा था, कुछ कहा नहीं। अगले रोज उसकी आंख के पास चोट का निशान था, एक दोस्त ने बताया उसकी किताब फट गई इसके लिए उसके बापू ने उसे मारा था। मुझे बहुत शांति मिली, उसकी पिटाई का सुनकर। अगली कक्षा में वो पढ़ने नहीं आया, पता चला उसने पढाई छोड़ दी है और अपने बापू के साथ मजदूरी पर जाने लगा है,मुझे ये किसी बड़ी जीत से कम न लगा, उसी साल पापा का ट्रांसफर होने के कारण हमें गांव से दूर जा...