हरसिंगार.... नाम में ही कितना रस, कितना आकर्षण है
हरसिंगार.... नाम में ही कितना रस, कितना आकर्षण है। श्वेत पंखुड़ियां, केसरिया डंडी और पंखुड़ियों के बीच मे लाल तिलक। ऐसा लगता है कि फूल ने सारे शृंगार कर लिए और सादगी भी बनाए रखी। हो सकता है हर तरह के शृंगार का अपभ्रंश हो-हरसिंगार।
दुष्यंत जी ने लिखा है:
तूने ये हरसिंगार हिलाकर बुरा किया,
पांवों की सब ज़मीन को फूलों से ढंक लिया...
मैं देखता था Nallasopara में मेरी पुरानी रिहाइश के सामने वाली सोसाइटी में एक मलयाली महिला रहती थीं ग्राउंड फ्लोर पर। उनके फ्लैट के सामने 2 पेड़ थे हरसिंगार के। वो पतली धोती या दुप्पटा जैसा कुछ बिछा दिया करती थीं शाम को और रात को झरते थे हरसिंगार उसे वो भगवान कार्तिकेय या अयप्पा को अर्पित करती थीं। हरसिंगार को तोड़ते नहीं, इनकी प्रतीक्षा करते हैं खुद से झर जाने की.
इतने औषधीय गुणों से भरपूर है कि हरिवंश पुराण में प्रसंग आता है कि स्वर्ग की अप्सरा उर्वशी भी जब थककर निस्तेज हो जाती थी, वह हरसिंगार को छूती थी तो उसका आकर्षण,उसकी चपलता सब उसे वापस मिल जाती थी।
हरसिंगार या पारिजात या शेफ़ाली जो भी कह लें, उसके फूल उस डाल के नीचे नहीं बल्कि थोड़ा आगे गिरते हैं, जिससे वे झरे। ये फूल दिन में नहीं खिलते हालांकि अब तो कुछ वैरायटी हैं जो दिन में भी खिल जाती हैं। हो सकता है जो मैंने लिखा वह सच न हो या आपका अनुभव अलग हो लेकिन सच से इतर भी कुछ दुनिया होती है जहां रची जाती हैं कहानियां, हरसिंगार के फूलों सी सुंदर सुगन्धित कहानियां।
पुराणों में भी कुछ कहानियां हैं। कहते हैं कि एकबार नारद जी स्वर्ग से पारिजात के कुछ फूल लेकर आये और श्रीकृष्ण को भेंट कर दिए। रुक्मिणी जी साथ थीं सो कृष्ण ने उन्हें रुक्मिणी को दे दिया और उन्होंने गूंथकर वेणी बना ली। नारद सत्यभामा के पास गए और चुगली कर दी कि सारे दिव्य पुष्प तो रुक्मिणी को मिल गए, आपका क्या!
बस फिर क्या! ज़िद ठान ली सत्यभामा ने कि मुझे तो पारिजात के बस पुष्प नहीं, अब तो पूरा पेड़ ही चाहिए। कृष्ण ने समझाया कि दिव्य पुष्प के लिए स्वर्गलोक ही बेहतर है पर वो मानी नहीं। हारकर उन्होंने कहा कि अच्छा इंद्र से माँगूँगा। भगवान याचना को तैयार हो गए पर सत्यभामा ने कहा कि साथ चलूंगी। पूरी तसल्ली होनी चाहिए कि मांगने में एफर्ट पूरा लगाया था भी या नहीं। इधर नारद ने इंद्र को चुगली कर दी कि पारिजात को अब स्वर्ग से लेकर जाने की तैयारी हो चुकी है। आगे आप देख लो।
कृष्ण ने पेड़ मांगा पर इंद्र आनाकानी करने लगे। तरह-तरह के बहाने बनाने लगे, दूसरी बातें छेड़ने लगे पर सत्यभामा तसल्ली को आई थीं सो टिकी रहीं। एक समय तो ऐसा आया कि कृष्ण ने इंद्र से कहा कि आग्रह से नहीं तो बल से ही सही, पर अब मैं इसे लेकर जाऊंगा। एक ही शर्त पर रुक सकता हूँ अगर पारिजात स्वयं मेरे साथ जाने से मना कर दें। पारिजात वृक्ष से पूछा गया। वह तो सहर्ष तैयार हो गया जाने को। इंद्र के बस में नहीं था कृष्ण से युद्ध करना ऊपर से पारिजात भी रुकना न चाहे। सबको स्वर्ग नहीं भाता। पारिजात ने ईश्वर का सानिध्य चुना।
विदा होते पारिजात को इंद्र ने शाप दे दिया कि तुम दिन में न ही अपनी आभा बिखेर पाओगे न सुगंध। हाँ भगवान को अर्पित कर दिए गए तब तुम सुगंधित हो जाओगे लेकिन उसका आनंद सिवा भगवान के कोई और न ले सकेगा। कृष्ण पारिजात लेकर तो आए लेकिन उन्हें अफ़सोस भी था कि एक वृक्ष के लिए उन्हें इतना सब करना पड़ा, देवराज को नीचा दिखाना पड़ा, यह उचित नहीं था। ये सब हुआ सत्यभामा की ज़िद से।
देवी सत्यभामा को पुष्प चाहिए ही नहीं थे, उन्हें तो पेड़ ही चाहिए था। सो भगवान ने पारिजात को आदेश दे दिया कि तुम खिलना तो सत्यभामा के भवन में मगर अपने फूल गिराना बगल में रुक्मिणी के भवन में। कहते हैं पारिजात ने पवन से प्रार्थना की कि भगवान का आदेश मानने में सहयोग करे। पारिजात के फूल हल्की हवा से झरने लगते हैं और आज भी उस डाल के नीचे नहीं गिरते जहां से झरे हों।
यह कहानी मुझे बड़ा सुकून देती है, मेरे लिए मरहम बनती है। मेरे घर में धूप नहीं आती, उस मौसम में तो तनिक भी नहीं जब हरसिंगार अपने पूरे शबाब पर होता है। मेरी बालकनी में नहीं खिल सकते मेरे प्यारे फूल, मुझे बस पत्तियों की खूबसूरती निहारने की इजाजत है। मेरे सामने वाली सोसाइटी में अब लोग आने शुरू हुए हैं। फ्लैट के possession दिए जा रहे हैं। ग्रीन एरिया को सँवारा जा रहा है। माली को देखा मैंने पौधे लगाते, उनमें कुछ हरसिंगार के भी थे। वे ज़मीन से उड़कर छठी मंजिल पर तो नहीं आ सकेंगे न ही मुझे मिल पाएगी उनकी सुगंध पर सुबह सुबह उनकी बिछाई सफेद चादर तो ज़रूर देख पाऊंगा, अपने चश्मे को साफ़ करके।
मुझे सत्यभामा की तरह पेड़ नहीं, रुक्मिणी की तरह हरसिंगार की आभा चाहिए।
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