जिन्हें अपने घरों में बच्चियां अच्छी नहीं लगती...

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❛दरवाज़ों पे खाली तख्तियां अच्छी नहीं लगती, 
मुझे उजड़ी हुई ये बस्तियां अच्छी नहीं लगती !

चलती तो समंदर का भी सीना चीर सकती थीं, 
यूँ साहिल पे ठहरी कश्तियां अच्छी नहीं लगती !

खुदा भी याद आता है ज़रूरत पे यहां सबको, 
दुनिया की यही खुदगर्ज़ियां अच्छी नहीं लगती !

उन्हें  कैसे  मिलेगी  माँ  के  पैरों  के तले  जन्नत, 
जिन्हें अपने घरों में बच्चियां अच्छी नहीं लगती !❜

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