मास्टरपीस ...
मेरी वो काली स्लेट याद है तुम्हें? वही जिसके कोनों पर मेटल लगी थी, जिन्हें जंग खाये जा रही थी । गोद में रखकर, छुपाकर उसपर कुछ लिख रही थी तुम शायद । बिल्कुल वैसे ही जैसे किसी बच्चे को गोद में लेते हैं । पूछने पर तुमने कहा था 'मास्टरपीस' बना रही हो।
पता नहीं क्यों मुझसे ये देखा नहीं गया, और मैंने ज़िद कर दी कि "वापस करो मेरी स्लेट ..ये मेरी है... तुमने क्यों ली?"
और ये कहते हुए मैंने अपनी ओर जोर से खींचा था। उस कोने से तुम्हारी हथेली थोड़ी कट भी गयी थी,शायद। और फिर गुस्से में तुमने सब कुछ मिटा डाला...जो लिखा था वो, और जो हम लिख सकते थे वो भी।
हालाँकि जो था वो पूरी तरह मिट तो नहीं पाया और स्लेट भद्दी सी हो गयी थी...काले आसमान पर राख के तूफान सी।
तब से लेकर आजतक उसपे कुछ लिखा नहीं मैंने और ना ही किसी और को लिखने दिया। कोई लिखता भी कैसे,मैंने इसे छुपा जो रखा था ।
वो स्लेट आज भी वैसी ही, थोड़ी सफेद,थोड़ी काली छोड़ी हुई है।
और सबकुछ 'काश' पे रुक गया है।
काश! मैंने उस दिन तुम्हारा हाथ पकड़ लिया होता।
काश! मैंने तुम्हें मिटाने नहीं दिया होता।
काश! तुमने हल्के हाथों से मिटाया होता।
काश! मैंने तुम्हें रंगीन चॉक दे दिया होता...तो आज वो स्लेट एक मास्टरपीस होती।
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