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Showing posts from February, 2022

ये गृहणियाँ भी थोड़ी पागल होती हैं ...

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  सलीके से आकार दे कर रोटियों को गोल बनाती हैं अौर अपने शरीर को ही आकार देना भूल जाती हैं ये गृहणियाँ भी थोड़ी पागल सी होती हैं।। ढेरों वक्त़ लगा कर घर का हर कोना कोना चमकाती हैं उलझी बिखरी ज़ुल्फ़ों को ज़रा सा वक्त़ नही दे पाती हैं ये गृहणियाँ भी थोड़ी पागल सी होती हैं।। किसी के बीमार होते ही सारा घर सिर पर उठाती हैं कर अनदेखा अपने दर्द सब तकलीफ़ें टाल जाती हैं ये गृहणियाँ भी थोड़ी पागल सी होती हैं ।। खून पसीना एक कर सबके सपनों को सजाती हैं अपनी अधूरी ख्वाहिशें सभी दिल में दफ़न कर जाती हैं ये गृहणियाँ भी थोड़ी पागल सी होती हैं।। सबकी बलाएँ लेती हैं सबकी नज़र उतारती हैं ज़रा सी ऊँच नीच हो तो नज़रों से उतर ये जाती हैं ये गृहणियाँ भी थोड़ी पागल सी होती हैं।। एक बंधन में बँध कर कई रिश्तें साथ ले चलती हैं कितनी भी आए मुश्किलें प्यार से सबको रखती हैं ये गृहणियाँ भी थोड़ी पागल सी होती हैं।। मायके से सासरे तक हर जिम्मेदारी निभाती है कल की भोली गुड़िया रानी आज समझदार हो जाती हैं ये गृहणियाँ भी..... वक्त़ के साथ ढल जाती हैं।।

साबुन के टुकड़े ...

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रोज़ जब नहाने जाता हूँ गुसलखाने में पाता हूँ साबुन ख़त्म होने को है, मगर वो जो दूरी है गुसलखाने से स्टोर तक की मेरी मजबूरी है, मैं तय नहीं कर पाता हूँ क्योंकि वक़्त कम है और काम ज़्यादा है, साबुन लाने गया तो दो मिनट और चले जायेंगे, वो दो मिनट जो मैंने रखे हैं नाश्ते के लिए वो दो मिनट जो मैंने रखे हैं छोटे रास्ते के लिए वो दो मिनट जो रखे हैं मंदिर पर माथा टेकने के लिए वो दो मिनट जो रखे हैं खुद को शीशे में देखने के लिए वो दो मिनट जो रखे हैं बच्चों से कुछ बोलने के लिए वो दो मिनट जो रखे हैं माँ की दवाई खोलने के लिए वो दो मिनट जो रखे हैं मैच की हाइलाइट्स के लिए वो दो मिनट जो रखे हैं बहन के संग फाइट्स के लिए वो दो मिनट जो रखे हैं पिताजी को यूट्यूब दिखाने के लिए वो दो मिनट जो रखे हैं रूठी हुई बीवी को मनाने के लिए, वो दो मिनट अगर साबुन लाने में चले गए तो वो दो मिनट भी ऑफिस खा जाएगा और उस दो मिनट के बाद जो तीसरा मिनट आएगा वहाँ से उधेड़ेगी ज़िन्दगी मुझको धागा धागा और जब मैं पहुँचूँगा घर वापस भागा भागा, माँ बाप सो चुके होंगे बच्चे सपनों में खो चुके होंगे बीवी भी मेरे जितना उधड़ चुकी होगी ज़िन्दगी पूरे दि

मेरे अजनबी हमसफ़र....

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वो ट्रेन के रिजर्वेशन के डब्बे में बाथरूम के तरफ वाली सीट पर बैठी थी... उसके चेहरे से पता चल रहा था कि थोड़ी सी घबराहट है उसके दिल में कि कहीं टीटी ने आकर पकड़ लिया तो..कुछ देर तक तो पीछे पलट-पलट कर टीटी के आने का इंतज़ार करती रही। शायद सोच रही थी कि थोड़े बहुत पैसे देकर कुछ निपटारा कर लेगी। देखकर यही लग रहा था कि जनरल डब्बे में चढ़ नहीं पाई इसलिए इसमें आकर बैठ गयी, शायद ज्यादा लम्बा सफ़र भी नहीं करना होगा। सामान के नाम पर उसकी गोद में रखा एक छोटा सा बेग दिख रहा था। मैं बहुत देर तक कोशिश करता रहा पीछे से उसे देखने की कि शायद चेहरा सही से दिख पाए लेकिन हर बार असफल ही रहा...फिर थोड़ी देर बाद वो भी खिड़की पर हाथ टिकाकर सो गयी। और मैं भी वापस से अपनी किताब पढ़ने में लग गया...लगभग 1 घंटे के बाद टीटी आया और उसे हिलाकर उठाया। “कहाँ जाना है बेटा” “अंकल दिल्ली तक जाना है”“टिकट है ?” “नहीं अंकल …. जनरल का है ….लेकिन वहां चढ़ नहीं पाई इसलिए इसमें बैठ गयी”“अच्छा 300 रुपये का पेनाल्टी बनेगा” “ओह …अंकल मेरे पास तो लेकिन 100 रुपये ही हैं”“ये तो गलत बात है बेटा …..पेनाल्टी तो भरनी पड़ेगी” “सॉरी अंकल …

एक तनख्वाह से कितनी बार टेक्स दूं और क्यों...जवाब है???

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  एक तनख्वाह से कितनी बार टेक्स दूं और क्यों...जवाब है??? मैनें तीस दिन काम किया, तनख्वाह ली -  इनकम टैक्स दिया मोबाइल खरीदा - टैक्स दिया--' रिचार्ज किया - टैक्स दिया डेटा लिया - टैक्स दिया बिजली ली - टैक्स दिया घर लिया - टैक्स दिया TV फ्रीज़ आदि लिये - टैक्स दिया कार ली - टैक्स दिया पेट्रोल लिया - टैक्स दिया सर्विस करवाई - टैक्स दिया रोड पर चला - टैक्स दिया टोल पर फिर - टैक्स दिया लाइसेंस बनवाया - टैक्स दिया गलती की तो - टैक्स दिया रेस्तरां में खाया - टैक्स दिया पार्किंग का - टैक्स दिया पानी लिया - टैक्स दिया राशन खरीदा - टैक्स दिया कपड़े खरीदे - टैक्स दिया जूते खरीदे - टैक्स दिया किताबें लीं - टैक्स दिया टॉयलेट गया - टैक्स दिया दवाई ली तो - टैक्स दिया गैस ली - टैक्स दिया सैकड़ों और चीजें ली और - टैक्स दिया, कहीं फ़ीस दी, कहीं बिल, कहीं ब्याज दिया, कहीं जुर्माने के नाम पर तो कहीं रिश्वत के नाम पर पैसे  देने पड़े, ये सब ड्रामे के बाद गलती से सेविंग में बचा तो फिर टैक्स दिया---- सारी उम्र काम करने के बाद कोई सोशल सिक्युरिटी नहीं,कोई मेडिकल सुविधा नहीं, पब्लिक ट्रांस्पोर्ट नहीं, सड़कें खरा

भगवा धोती तिलक कौन रोक रहा है सर ?

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  एक दर्द पैदा करती पोस्ट- हमें बदलना होगा पीढ़ियों के लिये तुरंत 😔🤔   एक मुस्लिम महिला की कलम से...... हिजाब के सम्बन्ध में ... भगवा धोती तिलक कौन रोक रहा है सर? आप ही लोग तो पीछा छुड़ाएं बैठे है इन चीजों से ! मुस्लिमों ने अपनी जड़ें न कल छोड़ी थीं न आज छोड़ने को राजी हैं! आप लोगों को तो खुद कुछ साल पहले तिलक, भगवा, शिखा, से शर्म आती थी, आप ही लोगों ने आधुनिकता के नाम पर सब कुछ त्याग दिया! आप नहीं त्यागते तो स्कूल में धोती कुर्ता पहनना नॉर्मल माना जाता!  बीएचयू में डिग्री लेते वक्त बच्चों का भारतीय पारंपरिक पोशाक पहनना खबर बनता है, जबकि यह तो नॉर्मल होना चाहिए था न ? खबर तो यह होती न कि हिंदू छात्रों ने गाउन पहन कर डिग्री ली! आपने खुद अपनी संस्कृति, अपने रीति रिवाज अपनी जड़ों को पिछड़ेपन के नाम पर त्यागा है! आज इतने साल बाद आप लोगों की नींद खुली है तो आप लोगो को उनकी जड़ों की तरफ लौटने के लिए कहते फिरते हैं! अपनी नाकामी, अपनी लापरवाही का गुस्सा हमारी जड़ों को काट कर क्यों निकालना चाहते हैं आप? आप के बच्चे कॉन्वेंट से पढ़ने के बाद पोएम सुनाते थे तो आपका सर ऊंचा होता था ! हमारे मुस्लि

मैं एक टेडी बियर हूँ ...

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  टेडी बियर की उत्तपत्ति कब ? कहाँ ? कैसे ? और किसके द्वारा ? हुई थी इस बारे में मैं उतना ही जानता हूँ जितना आदमी खुद के बारे में जानता है। विज्ञान की पुस्तकों में जो और जितना लिखा गया है वह सिर्फ ये सिद्ध करता है कि हमारा ज्ञान अभी यहाँ तक पहुँचा है – हो सकता है भविष्य में जब और जानकारी मिले – और तथ्य सिद्ध हुए तो पुरानी परिभाषाएं – मान्यतायें बदल जाये। ठीक वैसे ही जैसे – पहले धरती चपटी बतायी गयी थी अब गोल हो गयी है– हो सकता है भविष्य में कुछ और ही सिद्ध हो जाये – कुछ और ही कहा जाने लगे। खैर, मैं कहाँ खुद का इतिहास बताते-बताते आपका इतिहास बाँचने लगा। कुल मिला कर मैं एक सुंदर-सा मुलायम-सा प्यारा-सा खिलौना हूँ। जिसकी शक्ल जंगली भालू से मिलती है। सिर्फ शक्ल ही मिलती है रंग भी मिलने लगे तो पोलर बियर की तो कोई इज्जत भी हो काले भालू को कौन खरीदेगा ? मादरी जुबान में मुझें मुलायम खिलौना भालू ही कहेंगे पर मादरी जुबान में कहने पर मुझमें आकर्षण का अभाव हो जायेगा शायद इसी लिए मेरा टेडी बियर नाम मशहूर किया गया है। टेडी बियर कहते ही जेहन में मेरा ध्यान आता है। आज दिनांक 10 फरवरी मनुष्यों में टेडी ड

जिंदगी की धड़कन ...

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  किसी बात पर पत्नी से चिकचिक हो गई! वह बड़बड़ाते घर से बाहर निकला! सोचा कभी इस लड़ाकू औरत से बात नहीं करूँगा, पता नहीं समझती क्या है खुद को? जब देखो झगड़ा, सुकून से रहने नहीं देती! नजदीक के चाय के स्टॉल पर पहुँच कर चाय ऑर्डर की और सामने रखे स्टूल पर बैठ गया! तभी पीछे से एक आवाज सुनाई दी - "इतनी सर्दी में बाहर चाय पी रहे हो?" उसने गर्दन घुमा कर देखा तो पीछे के स्टूल पर बैठे एक बुजुर्ग उससे मुख़ातिब थे! ...आप भी तो इतनी सर्दी और इस उम्र में बाहर हैं बाबा..." वह बोला! बुजुर्ग ने मुस्कुरा कर कहा - "मैं निपट अकेला, न कोई गृहस्थी, न साथी, तुम तो शादीशुदा लगते हो बेटा..." "पत्नी घर में जीने नहीं देती बाबा,हर समय चिकचिक.. बाहर न भटकूँ तो क्या करूँ जिंदगी जहन्नुम बना कर रख दी है ।गर्म चाय के घूँट अंदर जाते ही दिल की कड़वाहट निकल पड़ी बुजुर्ग-: पत्नी जीने नहीं देती? बरखुरदार ज़िन्दगी ही पत्नी से होती है 8 बरस हो गए हमारी पत्नी को गए हुए, जब ज़िंदा थी, कभी कद्र नहीं की, आज कम्बख़्त चली गयी तो भुलाई नहीं जाती, घर काटने को होता है, बच्चे अपने अपने काम में मस्त,आलीशान घर, धन द

मैं तुम लोगो की पंचिंग बैग हूँ क्या ?

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  बेटा घर में घुसते ही बोला :- "मम्मी कुछ खाने को दे दो यार बहुत भूख लगी है..!! यह सुनते ही मैंने कहा :- "बोला था ना ले जा कुछ कॉलेज, सब्जी तो बना ही रखी थी..!! बेटा बोला :- "यार मम्मी अपना ज्ञान ना अपने पास रखा करो..!! अभी जो कहा है वो कर दो बस और हाँ, रात में ढंग का खाना बनाना पहले ही मेरा दिन अच्छा नहीं गया है..!! कमरे में गई तो उसकी आंख लग गई थी..!! मैंने जाकर उसको जगा दिया कि कुछ खा कर सो जाए..!! चीख कर वो मेरे ऊपर आया कि जब आँख लग गई थी तो उठाया क्यों तुमने.? मैंने कहा :- तूने ही तो कुछ बनाने को कहा था..!! वो बोला :- "मम्मी एक तो कॉलेज में टेंशन ऊपर से तुम यह अजीब से काम करती हो, दिमाग लगा लिया करो कभी तो..!! तभी घंटी बजी तो बेटी भी आ गई थी..!! मैंने प्यार से पूछा :- "आ गई मेरी बेटी कैसा था दिन.?" बैग पटक कर बोली :- "मम्मी आज पेपर अच्छा नहीं हुआ" मैंने कहा :- "कोई बात नहीं, अगली बार कर लेना" मेरी बेटी चीख कर बोली :- "अगली बार क्या रिजल्ट तो अभी खराब हुआ ना, मम्मी यार तुम जाओ यहाँ से..!! तुमको कुछ नहीं पता" मैं उसके कमरे

प्यार..... करना, जताना और निभाना... तीनो अलग अलग बाते है..

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  प्यार..... करना, जताना और निभाना... तीनो अलग अलग बाते है.. प्यार तो सभी करते ही है किसी ना किसी से.. बस जता और निभा नहीं पाते.. जो जता देते है वो निभा नहीं पाते और जो निभाने का सोचते है वो जता नहीं पाते ।।।  अक्सर कहानियो का अंत ऐसा ही होता है.. कहानी इसलिए कहा है क्यूंकि उन्होंने प्रेंम को जताया या निभाया नहीं । ।  प्यार तो बस हो जाता है.. भीड़ भरी सड़क पे उसका हाथ थाम लेना.. बारिश आ जाए तो उसकी छतरी बंद कर उसे अपने छाते में खिंच लेना.. एक ही प्लेट में गोलगप्पे खाना.. टपरी पर फूंक मार मार कर उसको चाय ठंडी कर पिलाना.. उसके एक बार बुलाने पर भरी बारिश में भीग कर आना। उसे थोड़ी सी दिक्कत होने पर ढेर सारी चिंता जताना। उसके एक बार कहने पर सारे काम छोड़कर कॉफी चाट गोलगप्पे पहुँचाना । अपने जरूरी काम छोड़कर उसके पास गए हो ये बात उनसे छिपाना। लाख बिजी होने पर भी फोन एक रिंग में उठाना कितना अच्छा लगता है न।  जब आप इश्क़ में होते हो बस उन्ही के लिए जीते हो उन्ही की खुशी में हंसते हो उन्ही के दुःख में रोते हो.. !! कंपकपाती ठंड में भी सुबह सुबह नहाकर मिलने जाना। लेट हो जाने पर 1 घण्टा दूर जाकर भी उसे घ

प्रपोज़ डे ...

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   कलेंडर पर निगाह पड़ी। आठ फरवरी की तारीख बता रहा था। कई साल पहले का वो दिन याद आ गया जब कम्मो को प्रपोज डे के बहाने प्रपोज किया था। उस दिन दिल लरज़ रहा था। साँसे जैसे थम-सी गयी थी – मैं बहुत ही डरा हुआ था। जेहन ने उकसाया – कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती – प्रपोज़ डे है ही – अगर मान गयी तो बल्ले- बल्ले–न मानी तो खीसें निपोर कर धीरे से सॉरी बोल दो विदाउट हल्ले-गुल्ले। आखिर हर निवेदन स्वीकृत नहीं होती। असहमति अगर खामोशी से हो तो इज्जत का कचूमर नहीं निकलता – बटाटा बड़ा नहीं होता। कल रोज डे था–कल इडियट कॉलेज में आयी ही नहीं थी – वर्ना रोज़-डे पर रोज़ दे कर –रोज़-रोज़(प्रतिदिन) रोज़ (गुलाब) देने का वादा कर लेता। कल ही तय हो जाता कि गुलाब की पंखुड़ियों से सजे सुहाग शया पर हम साँसे शेयर करेंगे या नहीं ? एक दूसरे की सांसों से हमारा जीवन महकेगा या नहीं ? कम्मो के कल कॉलेज न आने का कारण ये भी हो सकता था कि कल वह किसी और का गुलाब अपने गुलदस्ते में सज़ा रही हो। किसी और का जीवन महकाने का वादा कर रही हो। खैर । प्रत्यक्षम किंम प्रमानम ! सर पर कफ़न बांध कर सैनिक रणभूमि की ओर प्रस्थान करते है। आशिक सेहरा ब

एक महोब्बत ऐसी भी ....

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  शाम का समय था। मैं रेलवे स्टेशन पर एक बैंच पर एकांत में बैठा ट्रैन का इंतजार कर रहा था। ट्रैन दो घंटे बाद आने वाली थी। अचानक एक सुंदर सी महिला मेरे पास आकर बैठ गई। मैं महिलाओं से वैसे ही घबराता हूँ। अनजान हो तो मेरी जान ही निकलने लगती है। कुँवारा ब्रह्मचारी आदमी ठहरा इतने करीब जनानी को कैसे सहन कर पाता। मैं खड़ा होकर चलने लगा तो उसने कहा बैठ जाओ। मैंने आँखों से प्रश्न किया:-",???" जवाब में वह बोली:-", पहचाना नही क्या?" मैंने "ना", में गर्दन हिलाई। उसने उदास होकर कहा:-"मैं दामिनी"। "ओह" मेरे मुख से बस इतना ही निकला। यादों पर जमा कुछ कोहरा हटा और गौर से उसका चेहरा देखा तो उसकी दस साल पुरानी वास्तविक आकृति जहन में उभर आई। मोहल्ले की लड़की थी। साथ में भी पढ़ी थी। सालभर पागल भी रही थी। "बहुत दर्द हुआ आज, जिसके लिए खुद को बर्बाद कर लिया। वो शख्स तो मुझे पहचानता भी नही"। वो मरी आवाज में बोली। मैं कुछ समझ नही पाया। आँखों में प्रश्न लेकर उसकी और देखा:-???" "मैंने तुम्हे इतना चाहा? तुम्हे कुछ भी पता नही?" मैंने फिर "न

मिडिल क्लास ...

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  "मिडिल-क्लास" का होना भी किसी वरदान से कम नहीं है कभी बोरियत नहीं होती।जिंदगी भर कुछ ना कुछ आफ़त लगी ही रहती है। मिडिल क्लास वालों की स्थिति सबसे दयनीय होती है, न इन्हें तैमूर जैसा बचपन नसीब होता है न अनूप जलोटा जैसा बुढ़ापा, फिर भी अपने आप में उलझते हुए व्यस्त रहते है ।  मिडिल क्लास होने का भी अपना फायदा है चाहे BMW का भाव बढ़े या AUDI का या फिर नया i phone लांच हो जाऐ, घंटा फर्क नही पङता। मिडिल क्लास लोगों की आधी ज़िंदगी तो झड़ते हुए बाल और बढ़ते हुए पेट को रोकने में ही चली जाती है।  इन घरों में पनीर की सब्जी तभी बनती है जब दुध गलती से फट जाता है और मिक्स-वेज की सब्ज़ी भी तभी बनती हैं जब रात वाली सब्जी बच जाती है। इनके यहाँ फ्रूटी, कॉल्ड ड्रिंक एक साथ तभी आते है जब घर में कोई बढ़िया वाला रिश्तेदार आ रहा होता है। मिडिल क्लास वालों के कपड़ों की तरह खाने वाले चावल की भी तीन वेराईटी होती है; डेली,कैजुवल और पार्टी वाला।  छानते समय चायपत्ती को दबा कर लास्ट बून्द तक निचोड़ लेना ही मिडिल क्लास वालों के लिए परमसुख की अनुभुति होती है। ये लोग रूम फ्रेशनर का इस्तेमाल नही करते, सीधे अ

पिता का प्रेम

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  तुम और मैं पति पत्नी थे, तुम माँ बन गईं मैं पिता रह गया। तुमने घर सम्भाला, मैंने कमाई, लेकिन तुम "माँ के हाथ का खाना" बन गई, मैं कमाने वाला पिता रह गया। बच्चों को चोट लगी और तुमने गले लगाया, मैंने समझाया, तुम ममतामयी बन गई मैं पिता रह गया। बच्चों ने गलतियां कीं, तुम पक्ष ले कर "understanding Mom" बन गईं और मैं "पापा नहीं समझते" वाला पिता रह गया। "पापा नाराज होंगे" कह कर तुम बच्चों की बेस्ट फ्रेंड बन गईं, और मैं गुस्सा करने वाला पिता रह गया। तुम्हारे आंसू में मां का प्यार और मेरे छुपे हुए आंसुओं मे, मैं निष्ठुर पिता रह गया। तुम चंद्रमा की तरह शीतल बनतीं गईं, और पता नहीं कब मैं सूर्य की अग्नि सा पिता रह गया। तुम धरती माँ, भारत मां और मदर नेचर बनतीं गईं, और मैं जीवन को प्रारंभ करने का दायित्व लिए सिर्फ एक पिता रह गया... फिर भी न जाने क्यूं पिता पीछे रह जाता है माँ, नौ महीने पालती है पिता, 25 साल् पालता है फिर भी न जाने क्यूं पिता पीछे रह जाता है माँ, बिना तानख्वाह घर का सारा काम करती है पिता, पूरी कमाई घर पे लुटा देता है फिर भी न जाने क्यूं पिता प

खाली कुर्सी का राज

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  एक बेटी ने एक संत से आग्रह किया कि वो हमारे घर आकर उसके बीमार पिता से मिलें, प्रार्थना करें। बेटी ने यह भी बताया कि उसके बुजुर्ग पिता पलंग से उठ भी नहीं सकते। संत ने बेटी के आग्रह को स्वीकार किया। कुछ समय बाद जब संत घर आए, तो उसके पिताजी पलंग पर दो तकियों पर सिर रखकर लेटे हुए थे और एक खाली कुर्सी पलंग के साथ पड़ी थी। संत ने सोचा कि शायद मेरे आने की वजह से यह कुर्सी यहां पहले से ही रख दी गई हो। संत ने पूछा - मुझे लगता है कि आप मेरे ही आने की उम्मीद कर रहे थे, पिता- नहीं, आप कौन हैं? संत ने अपना परिचय दिया और फिर कहा- मुझे यह खाली कुर्सी देखकर लगा कि आपको मेरे आने का आभास था। पिता- ओह यह बात नहीं है, आपको अगर बुरा न लगे तो कृपया कमरे का दरवाजा बंद करेंगे क्या? संत को यह सुनकर थोड़ी हैरत हुई, फिर भी दरवाजा बंद कर दिया। पिता- दरअसल इस खाली कुर्सी का राज मैंने आज तक किसी को भी नहीं बताया, अपनी बेटी को भी नहीं। पूरी जिंदगी, मैं यह जान नहीं सका कि प्रार्थना कैसे की जाती है। मंदिर जाता था, पुजारी के श्लोक सुनता था, वो तो सिर के ऊपर से गुज़र जाते थे, कुछ भी पल्ले नहीं पड़ता था। मैंने फिर प्रा

बनारस ...

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मुझे नहीं पता कि तुम किस शहर में रहते हो, किसी दिन बैग में एक-काद कपड़े रख के निकल पड़ो बनारस। कहतें हैं कि मुम्बई मायानगरी है जहाँ छोटे-छोटे इंसानों के बड़े बड़े सपने पूरे हुए हैं! पर बनारस... ये वो जगह है जहाँ पर इंसान बड़े से बड़े सपने को जलते हुए, मिट्टी में खाक होते हुए देखता है... एक चद्दर रख लेना साथ में या फिर बनारस सिटी स्टेशन के बाहर से 10 रुपये में बिकने वाली पन्नी ले लेना और पहुँच पड़ना सीधे मणिकर्णिका। ये वो जगह है जहां इंसानी लाशों के जलते हुए उजाले में सिर्फ और सिर्फ सच्चाई दिखाई देती है। एक रात के लिए भूल जाना कि तुम्हारे क्रेडिट कार्ड के लिमिट कितनी है, तुम्हारे डेबिट कार्ड में कितने पैसे पड़े हैं जिन्हें तुम अभी निकाल के 5 स्टार होटल बुक कर सकते हो, भूल जाना अपने पैरों में पड़े हुए जूते की कीमत या कलाई में टिक-टिक करती हुई घड़ी की कीमत और पन्नी बिछाकर बैठ जाना एक कोने में और देखना चुप चाप वहाँ का तमाशा। तुम्हें सिर्फ और सिर्फ सच दिखाई देगा। तुम देखोगे की कैसे वो लोग जिन्होनें अपनी जिंदगी सबकुछ भूलकर अपने सपनों को पूरा करने में बिता दी कैसे यहाँ औंधे मुँह पड़े हैं। वो लोग जो जिनक