एक महोब्बत ऐसी भी ....

 


शाम का समय था। मैं रेलवे स्टेशन पर एक बैंच पर एकांत में बैठा ट्रैन का इंतजार कर रहा था। ट्रैन दो घंटे बाद आने वाली थी।
अचानक एक सुंदर सी महिला मेरे पास आकर बैठ गई।
मैं महिलाओं से वैसे ही घबराता हूँ। अनजान हो तो मेरी जान ही निकलने लगती है।

कुँवारा ब्रह्मचारी आदमी ठहरा इतने करीब जनानी को कैसे सहन कर पाता। मैं खड़ा होकर चलने लगा तो उसने कहा बैठ जाओ।
मैंने आँखों से प्रश्न किया:-",???"
जवाब में वह बोली:-", पहचाना नही क्या?"
मैंने "ना", में गर्दन हिलाई।
उसने उदास होकर कहा:-"मैं दामिनी"।
"ओह" मेरे मुख से बस इतना ही निकला।

यादों पर जमा कुछ कोहरा हटा और गौर से उसका चेहरा देखा तो उसकी दस साल पुरानी वास्तविक आकृति जहन में उभर आई। मोहल्ले की लड़की थी। साथ में भी पढ़ी थी। सालभर पागल भी रही थी।
"बहुत दर्द हुआ आज, जिसके लिए खुद को बर्बाद कर लिया। वो शख्स तो मुझे पहचानता भी नही"। वो मरी आवाज में बोली।
मैं कुछ समझ नही पाया। आँखों में प्रश्न लेकर उसकी और देखा:-???"
"मैंने तुम्हे इतना चाहा? तुम्हे कुछ भी पता नही?"
मैंने फिर "ना" में गर्दन हिलाई।
"याद कर 12 वीं कक्षा में तेरी कॉपी में "I LOVE YOU लिख कर किसी ने पर्ची दबाई थी?
"हाँ, मग़र वह तो किसी लड़के की करतूत थी"।
"पागल, वो कोई लड़के की मजाक नही मैं ही थी"।
"ओह, मगर लिखावट तो तेरी नही थी। जब मैंने हल्ला मचाया था। सारे टीचर इकट्ठे हो गए थे। लिखावट मिलाई गई। मगर किसी की नही मिली।"
'कैसे मिलती? मैंने उलटे हाथ से जो लिखा था।" इस बार वह जरा मुस्कराई।

"ओह!!" मैंने आश्चर्यचकित होकर उसे देखा। जैसे ब्रेल लिपि पढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ।
"हाँ, तू सचमुच भोला था। तेरे इसी भोलेपन पर तो मेरा दिल आ गया था। 12 वीं के बाद मेरी पढ़ाई छूट गई थी।
और तू कॉलेज जाने लगा था। तब मैंने साल भर पागलपन का नाटक किया था"।

"झूठी, तू सचमुच पागल थी"।
"हाँ पागल थी। तेरे प्यार में। दीन-दुनिया की खबर ही नही थी। अपना होश भी नही सम्भाल पा रही थी। पागपन के बहाने से तेरे घर आकर छुप जाया करती थी। इसी बहाने तुझे छू लिया करती थी।"
"चल झूठी, तुमने पागलपन में कइयों को काट लिया था। याद नही क्या?

"हाँ याद है सबकुछ तो याद है। चाहत के लम्हे ऐसे ही भूले जाते हैं क्या? याद कर मैंने सबको काटा मग़र तुझे क्यों नही काटा? तुम मुझे पकड़ कर घर वालों के हवाले कर दिया करते थे। और मैं बड़ी आसानी से तुम्हारी पकड़ में आ जाया करती थी। इसी बहाने तुझे छूने का का मौका मिल जाया करता था। यही तो हसरत रहती थी मेरी। तुझे छूने के लिए अपना वजूद तक दांव पर लगा दिया था मैंने।"

मैं निरूत्तर सा हो गया। फिर मैंने कहा:-" नही तू सचमुच पागल ही थी। याद कर जब मैं बरसाती तालाब में नहा रहा था। तुम मेरे कपड़े उठा कर ले गई थी। मैं पूरे दिन खेतों में चड्डी में घूमता रहा मग़र तुमने शाम तक मेरे कपड़े नही दिए। ऐसा तो कोई पागल ही कर सकती थी।"

"हाँ कपड़े उठाए थे मैंने। मग़र जरा सोच तेरे ही क्यूँ उठाए थे? और भी तो तेरे कई दोस्त नहा रहे थे?  बड़ा मजा आया था मुझे इस खेल में। शाम को तेरे कपड़े मैंने वापस भी तो कर दिए थे। मेरे अपने थे तुम। ढंग से तुझे देखने का हक था मेरा सो मैंने देख लिया।" ,फिर उसने एक गहरी सांस लेकर कहा:-" बड़ी कीमत चुकानी पड़ी थी मुझे इस खेल की। तेरी माँ शिकायत लेकर आ गई थी। इस कारण घर वालों ने मुझे खूब पीटा। फिर रातभर बेड़ियों से बाँधे रखा था। मगर सारी सजा उस आनन्द के सामने कुछ भी नही थी रे"!
अब मेरे पास कोई जवाब नही था। मुझे उससे आँख मिलाने की भी हिम्मत नही हो रही थी।

उसने कहना जारी रखा:-" तुझसे महोब्बत की सजा तो मैं अब भी भोग रही हूँ। पागल समझ कर घर वालों ने बुड्ढे के पल्ले बाँध दिया। मुझसे 15 साल बड़ा है वो। मग़र जो भी है, पति है मेरा। निभा रही हूँ। दो बच्चे भी हैं मेरे। मग़र तू आज भी मेरे दिल, मेरे जेहन से निकलता ही नही। मुझे छूता कोई और है मग़र स्पर्श तेरा ही महसूस किया है मैंने। ये जिंदगी तेरे नाम की है। ता उम्र तेरी ही रहेगी। प्यार एक बार होता है। मुझे भी हुआ। बिना किसी उम्मीद के मैंने तुझे चाहा। चाहती रहुँगीं। ओह अब मेरी ट्रैन आ गई है। दूर की मुसाफिर हूँ अब । जाना पड़ेगा। मग़र आज जिंदगी की सबसे बड़ी खुशी पाली है मैंने। तुझे अपने दिल का हाल बताकर।
अब मर भी जाऊँ तो कोई गम नही।"

इतना कह कर वो चली गई। मैं जड़वत पत्थर बना बैठा रहा।  वो स्टेशन की भीड़ में कहीं ओझल हो गई।

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