प्रपोज़ डे ...

 


 कलेंडर पर निगाह पड़ी।

आठ फरवरी की तारीख बता रहा था।

कई साल पहले का वो दिन याद आ गया जब कम्मो को प्रपोज डे के बहाने प्रपोज किया था।

उस दिन दिल लरज़ रहा था। साँसे जैसे थम-सी गयी थी – मैं बहुत ही डरा हुआ था।

जेहन ने उकसाया – कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती – प्रपोज़ डे है ही – अगर मान गयी तो बल्ले- बल्ले–न मानी तो खीसें निपोर कर धीरे से सॉरी बोल दो विदाउट हल्ले-गुल्ले।

आखिर हर निवेदन स्वीकृत नहीं होती।

असहमति अगर खामोशी से हो तो इज्जत का कचूमर नहीं निकलता – बटाटा बड़ा नहीं होता।

कल रोज डे था–कल इडियट कॉलेज में आयी ही नहीं थी – वर्ना रोज़-डे पर रोज़ दे कर –रोज़-रोज़(प्रतिदिन) रोज़ (गुलाब) देने का वादा कर लेता।

कल ही तय हो जाता कि गुलाब की पंखुड़ियों से सजे सुहाग शया पर हम साँसे शेयर करेंगे या नहीं ?

एक दूसरे की सांसों से हमारा जीवन महकेगा या नहीं ?

कम्मो के कल कॉलेज न आने का कारण ये भी हो सकता था कि कल वह किसी और का गुलाब अपने गुलदस्ते में सज़ा रही हो।

किसी और का जीवन महकाने का वादा कर रही हो।

खैर ।

प्रत्यक्षम किंम प्रमानम !

सर पर कफ़न बांध कर सैनिक रणभूमि की ओर प्रस्थान करते है।

आशिक सेहरा बांध कर मंडप में जाने का फैसला करते है।

मैंने कफ़न बांध कर मरुभूमि में उतरने का इरादा तय कर लिया था।

मरुभूमि ही तो थी वह – दो साल हो चूके थे साथ में पढ़ाई करते – न किसी से पटी – न किसी को पटाई – कभी हँसी मुस्कुराई भी तो सहेलियों के बीच – लड़कों से ज़ैसे एलर्जी थी।

उसके प्रति मेरे आकर्षण का कारण भी यही था कि लड़की शरीफ थी।

रंग रूप से खूबसूरत तो और भी लडकियां थी पर उनकी चंचलता - चपलता - लोलुपता पर कम्मो की सादगी भारी थी।

है न कमाल की बात कि मर्द स्पोर्ट भी चाहता है तो नोंस्पोर्टिंग लड़कियों से – पिज़्ज़ा बर्गर पर हासिल होने वाली के साथ– वक़्त गुज़ारा जा सकता है –पूरी जिंदगी नहीं।

यही कारण था कि मैंने तय कर लिया था कि आर या पार।

या तो कम्मो मेरी होगी या मैं ही किसी और नेक बख्त का हो जाऊँगा।

मेरे पास बहुत वक़्त नहीं है सिर्फ एक लड़की पर सर्फ करने के लियें।

तू नहीं – और सही – और नहीं कोई और सही।
बहुत तेज़ी से जवानी बीत रही थी।

किसी एक की उम्मीद में इसे जाया करना कहां उचित होता!

खैर, अपने समय से कम्मो कॉलेज में आ गयी। मौका देखकर – हौसला बांध कर – मैंने जेब से कल का खरीदा हुआ बासी गुलाब निकाला – फिल्मी स्टाइल में घुटने जमीन पर टिका कर – उसे प्रपोज़ कर ही दिया।

कम्मो गुलाब ले तो ली पर उसके चेहरे पर कोई भाव परिलक्षित नहीं हुए। मैं कन्फ्यूज़ था कि पत्थर की शिला पर मेरे निवेदन का कोई प्रभाव पड़ा भी या नहीं ?

वह खामोशी से बस मेरी ओर देखती रही।
बातचीत करने की गरज से फिर मैं ही बोला –" कल रोज़ डे था कल मैं तुम्हारें लिये गुलाब🌷ले कर आया था – पर कल तुम कॉलेज आयी ही नहीं।"

" पापा की तबियत खराब थी उन्हें अस्पताल लेकर गयी थी।"

" ओह ।"

" ये कल वाला ही गुलाब है ? "

" हाँ ।"

" 0K "– वह एक निःश्वास छोड़ती हुई बोली – "मुझें तुम्हारा प्रस्ताव मंजूर है पर – ये प्रस्ताव सीरियस होना चाहियें – हँसी-मजाक या टाइम पास नहीं।"

मैंने हर किसी की कसम खा कर कम्मो को यकीन दिलाया कि वह प्रस्ताव गम्भीर था।

ईश्वर ही जानें कि वो दिन मेरे लिये भाग्यशाली था या दुर्भाग्यशाली था।

रात में जब पिताजी दुकान मंगल करके घर आये तो खाने की मेज पर मुझसे पूछ बैठे –" क्या जयंत प्रसाद बंसल साहब की बेटी मेरे साथ कॉलेज में पढ़ती है ?"

मुझें काटों तो खून नहीं।

मैं बोलना तो दूर हकला भी न सका। पिताजी को सवाल दुहराने की आदत न थी। फिलहाल तो जरूरत भी नहीं थी। मेरे चेहरे की घबराहट से ही वह सब कुछ समझ गये।

" अगले लगन में तुम्हारी शादी कम्मो से करवा रहा हूँ – अब मेहरबानी ये करना कि जब तक ब्याह न हो जाये तब तक मेरा नाम रोशन करने की कोशिश न करना।"– कह कर पिताजी खाना खाने में लग गये।

माता जी कुछ कहना चाही तो पिताजी ने बताया कि कम्मो घर जा कर सारा वाकया अपनी बड़ी बहन को बता दी –बहन से माँ को और माँ से उसके पिता को सूचना मिली।

कम्मो के पिता के मेरे पिताजी से व्यपारिक सम्बन्ध थे।

घर में सोच-विचार कर कम्मो के पिता मेरे पिताजी से मिले और हमारा रिश्ता तय हो गया।

मेरे नथुनों में नकेल पड़ गयी।

अब मैं अपनी होने वाली बीवी की निगरानी में कॉलेज आने-जाने लगा। जब तक कॉलेज में रहता कम्मो की गिद्ध दृष्टि से ओझल नहीं हो पाता था।

मेरे पंख कतर दिये गये।

कॉलेज के बाद पिताजी के स्टोर में ड्यूटी बजानी पड़ती।पिताजी का कहना था कि गृहस्थी सम्भालने से पहले दुकान सम्भालना भी सीखों।

खिलन्दरा जीवन समाप्त हो गया।

घर परिवार की जिम्मेदारी समझनी पड़ी –ओढ़नी पड़ी।

लगभग तीस साल हो गये कम्मो विड्स सुरेश वाली शादी की कार्ड छपे हुए।

इन तीस साल में बहुत कुछ हो गया हमारे जीवन में – बुजुर्ग परलोक सिधार गये – मेरे दो बच्चें हट्टे-कट्टे मर्द बन गये –दोनों लड़कों की शादी कर दी और वे दोनों भी पिता बन गये और मैं दादाजी बन गया हूँ।

 दूसरे सनकियो की तरह – कम्मो बीते तीस साल से– हर साल आठ फरवरी को प्रपोज़ डे के रूप में मनाती है । जिसे वह चाहें तो विक्टरी डे के तौर पर भी मना सकती है और आठ फरवरी की शाम को घर के खाने का मेन्यू फिक्स है – खीर पूड़ी।

आखिर शुभ दिन कुछ मीठा तो होना ही चाहियें न !

आज की शाम भी खीर-पूड़ी बननी है – कम्मो ने दूधिये को पाँच लीटर दूध शाम को लाने के लिये कह दिया है।

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