साबुन के टुकड़े ...




रोज़ जब नहाने जाता हूँ
गुसलखाने में पाता हूँ
साबुन ख़त्म होने को है,

मगर वो जो दूरी है
गुसलखाने से स्टोर तक की
मेरी मजबूरी है,

मैं तय नहीं कर पाता हूँ
क्योंकि वक़्त कम है
और काम ज़्यादा है,

साबुन लाने गया तो दो मिनट
और चले जायेंगे,

वो दो मिनट जो मैंने
रखे हैं नाश्ते के लिए
वो दो मिनट जो मैंने
रखे हैं छोटे रास्ते के लिए
वो दो मिनट जो रखे हैं
मंदिर पर माथा टेकने के लिए
वो दो मिनट जो रखे हैं
खुद को शीशे में देखने के लिए
वो दो मिनट जो रखे हैं
बच्चों से कुछ बोलने के लिए
वो दो मिनट जो रखे हैं
माँ की दवाई खोलने के लिए
वो दो मिनट जो रखे हैं
मैच की हाइलाइट्स के लिए
वो दो मिनट जो रखे हैं
बहन के संग फाइट्स के लिए
वो दो मिनट जो रखे हैं
पिताजी को यूट्यूब दिखाने के लिए
वो दो मिनट जो रखे हैं
रूठी हुई बीवी को मनाने के लिए,

वो दो मिनट अगर साबुन लाने में चले गए
तो वो दो मिनट भी ऑफिस खा जाएगा
और उस दो मिनट के बाद जो
तीसरा मिनट आएगा
वहाँ से उधेड़ेगी ज़िन्दगी मुझको
धागा धागा
और जब मैं पहुँचूँगा घर वापस
भागा भागा,

माँ बाप सो चुके होंगे
बच्चे सपनों में खो चुके होंगे
बीवी भी मेरे जितना उधड़ चुकी होगी
ज़िन्दगी पूरे दिन मुझसे लड़ चुकी होगी
इसलिए वो नया साबुन
स्टोर में ही रखा रहता है
रोज़ मेरी ज़िंदगी का दो मिनट
यूँ ही बचता रहता है
इसलिए जो भी टुकड़े हैं
उनसे ही काम चला लेता हूँ
मैं रोज़ ऐसे ही नहा लेता हूँ....

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