औरत तो पराई होवे ...

 


औरत तो पराई होवे, यह शब्द आज भी मेरे कानों में गूंजते हैं हुआ यूं था कि एक बार मेरे पति के साथ मुझे उनके जान पहचान वालों के यहां जाना पड़ा। 

उनके साथ उनके सहकर्मी जिनकी माताजी का पथरी का ऑपरेशन हुआ था, सो उन्हें देखने जाना था जैसे ही हम वहां पहुंचे तो उनकी माताजी बिस्तर से उठ कर बैठ गई ; और अपनी बहू को आवाज लगाते हुए बोली की मेहमानों के लिए चाय पानी का इंतजाम किया जाए। 

बहु बहुत पढ़ी लिखी थी और दहेज भी बहुत सारा लाई थी परंतु मॉडर्न थी, यूं तो सासु जी प्रसन्न हीं थी परंतु उन्हें एक कमी बार-बार खल रही थी कि बहू ने जींस टॉप पहना हुआ है! कोई बात नहीं जींस टॉप पहना हुआ है तो पर सिर पर कुछ रख तो सकती है! चुन्नी से ढक तो सकती है !

घुंघट ना करें," पर सिर पर तो कुछ ना कुछ होना ही चाहिए " हमारे यहां तो ऐसा चलता नहीं है ऐसा कह कर सासु जी ने अपने लाड प्यार सबका सत्यानाश कर दिया।वे अपने मन को समझा रहीं थी कि नहीं बहुत अच्छी है पर फिर भी हमारे यहां दुनिया क्या कहती है , दुनिया क्या कहेगी, ऐसा सोच कर वे बार-बार दुखी हो जाती इस पर मैंने उन्हें समझाया कि कोई बात नहीं शर्म घुंघट में नहीं आंखों में होती है घुंघट में रहकर अगर बहू इज्जत ना करें तो ऐसे घुंघट का कोई फायदा नहीं तो सासू जी अपने मन को बहला लेती। हां सही कह रही है! 

थोड़ी देर बाद उनका छोटा बेटा आया और वह कुछ अपनी मां से बात करने लगा तो फिर से एक नई शिक्षा शुरू हुई कि बहू को कोई बात ना बतानी, क्योंकि बहू तो पराई होवे बहू को रोटी कपड़ा और घर दे दो बस इतना ही काफी होवे कोई जरूरत ना है तो उसे अपने मन की बात कहने की यह सुनकर मुझे अपनी कहानी याद आ गई की मेरी शादी को भी 18 साल हो चुके हैं पर आज भी ऐसा लगता है जैसे कि मेरे पति आज भी मेरे होकर मेरे नहीं है, वह आज भी मुझसे अपने मन की पूरी बातें नहीं कहते आज भी बहुत कुछ छुपा कर रखते हैं क्यों ? 

शायद मैं अभी पराई हूं, और कितने साल पराई रहूंगी। कोई बता सकता है? वह भी तब जब मैंने अपना तन-मन धन सब अर्पण कर रखा है।

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