प्लंबर ...

 


रसोई में नल से पानी रिस रहा था,
तो मैंने एक प्लंबर को बुला लिया।  
मैं उसको काम करते देख रहा था...

उसने अपने थैले से एक रिंच निकाली।
रिंच की डंडी टूटी हुई थी।
मैं चुपचाप देखता रहा कि वह
इस रिंच से कैसे काम करेगा?

उसने पाइप से नल को अलग किया।
पाइप का जो हिस्सा गल गया था,
उसे काटना था।  
उसने फिर थैले में हाथ डाला और
एक पतली-सी आरी  निकाली।

आरी भी आधी टूटी हुई थी।.  

मैं मन ही मन सोच रहा था कि
पता नहीं किसे बुला लिया हूं?

इसके औजार ही ठीक नहीं तो
फिर इससे क्या काम होगा?

वह धीरे-धीरे अपनी मुठ्टी में आरी पकड़ कर पाइप पर चला रहा था।
उसके हाथ सधे हुए थे।
कुछ मिनट तक आरी आगे-पीछे किया
और पाइप के दो टुकड़े हो गए।

उसने गले हिस्से को बाहर निकाला और
बाकी हिस्से में नल को फिट कर दिया।

इस पूरे काम में उसे दस मिनट का समय लगा।
 
मैंने उसे मजूरी के 100 रूपये दिए
तो उसने कहा कि इतने पैसे नहीं बनते साहब। आप आधे दीजिए।   
 
उसकी बात पर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ।
मैंने उससे पूछा- “क्यों भाई?
पैसे भी कोई छोड़ता है क्या?”

लेकिन उसके उत्तर ने मुझे सच का
ऐसा साक्षात्कार कराया की मैं हैरान हो गया।  

उसने कहा कि  “सर, हर काम के
पैसे  तय होते हैं।
आप आज अधिक पैसे देंगे,
मुझे अच्छा भी लगेगा,
लेकिन मुझे हर जगह इतने पैसे
नहीं मिलेंगे तो फिर तकलीफ होगी।  
हर चीज़ का रेट तय है।
आप उतने ही पैसे दें जितना बनता है।“
 
मैंने धीरे से प्लंबर से कहा कि
तुम नई आरी खरीद लेना,
रिंच भी खरीद लेना।
काम में आसानी होगी।

अब प्लंबर हंसा...
 
“अरे नहीं सर,
औजार तो काम में टूट ही जाते हैं।
पर इससे काम नहीं रुकता।“

मैंने हैरानी के साथ उससे कहा -
"अगर रिंच सही हो,
आरी ठीक हो तो काम आसान नहीं हो जाएगा?"
 
"हो सकता है हो जाए।
लेकिन सर, आप जिस ऑफिस में काम करते हैं वहां आप किस पेन से लिख रहे हैं
उससे क्या फर्क पड़ता है?
लिखना आना चाहिए।
लिखना आएगा तो किसी भी पेन से
आप लिख लेंगे।
नहीं लिखना आएगा
तो चाहे जैसी भी कलम हो,
आप नहीं लिख पाएंगे।
हुनर हाथ में है मशीन में नहीं।
सर इसे तो टूल कहते हैं।
इससे अधिक कुछ नहीं।
जैसे आपके लिए कलम है,
वैसे ही मेरे लिए ये टूल।
ये थोड़े टूट गए हैं, लेकिन काम आ रहे हैं।
नया लूंगा फिर यही हिस्सा टूटेगा।   
जब से ये टूटा है इसमें टूटने को
कुछ बचा ही नहीं।
अब काम आराम से चल रहा है।"

मैं चुप था। 


दिन-भर की मेहनत से ईमानदारी से कमाने वाले के चेहरे पर संतोष की जो लकीर मैं देख रहा था, वह सचमुच हैरान करने वाली थी।
 
 मुझे लग रहा था कि हम सारा दिन पैसों के पीछे भागते हैं।
पर जब मेहनत और ईमानदारी का टूल हमारे पास हो तो असल में बहुत पैसों की ज़रूरत ही नहीं रह जाती।

हमें बहुत से लोगों से सीखना है।
ये लोग स्कूल में नहीं पढ़ते/पढ़ाते।

ये ज़िंदगी की यात्रा में कहीं भी किसी भी समय मिल जाते हैं।  
ज़रूरत तो है ऐसे लोगों को पहचानने की; इनसे सीखने की।
झुक कर इनकी सोच को सम्मान करने की।

मैंने कुछ कहा नहीं।
प्लंबर से पूछा कि चाय तो पियोगे?
उसने कहा, "नहीं सर।
बहुत काम है।
कई घरों में पानी रिस रहा है।
उन्हें ठीक करना है।    

सर, पानी बर्बाद न हो, इसका तो हम सबको ही ध्यान रखना है।"

वह तो चला गया।
 

मैं बहुत देर तक सोचता रहा।
काश! हम सब ऐसे ही प्लंबर होते!

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