वे शिक्षक थे ...


 

वे शिक्षक थे,
पूरी व्यवस्था के अधीक्षक थे,
फिर भी पढ़ाते रहे !

जनगणना सर्वे कराते हुए,
वोटर आईडी कार्ड बनाते हुए,
चुनाव-उपचुनाव में व्यवस्थाएं बनाते हुए,
पोलियो की दो बूंद  पिलाते हुए,
वैक्सीनों की जानकारियां जुटाते हुए,
वे पढ़ाते रहे !

अँगूठा छापों के मातहत रहकर,
लचर व्यवस्था के मूक दर्शक बनकर
शिक्षा का फैलता कारोबार देखकर
वे पढ़ाते रहे !

नाम लिखवाने को,
किस्मत चमकवाने को,
समाज बदलवाने को,
देश गढवा़ने को,
वे पढ़ाते रहे!

कभी बिन कुर्सियों के ,
कभी टूटी कुर्सियों पर,
कभी नीम बुखार में,
कभी गला खराश में,
वे पढ़ाते रहे !

मन में ऊँचे ख्वाब लेकर,
टिफिन में रोटी-दाल लेकर,
शिक्षा का हाल बेहाल देखकर,
सिर पर टोपी,
गले में गमछा, रुमाल लेकर,
वे पढ़ाते रहे !

कभी तंग कमरों में,
कभी बिन कमरों के,
कभी बाग में,
कभी गाँव में,
कभी टीन में,
कभी टप्पर में,
कभी शहर में,
कभी छप्पर में,
कभी टाट पर,
कभी ठाट में,
कभी सूट में,
कभी बूट में,
वे पढ़ाते रहे!

कभी छतरी लेकर,
कभी बैनर लेकर,
कभी माईक पकड़कर,
कभी डिजिटल होकर,
वे पढ़ाते रहे!

बाबुओं की डाँट सुनकर,
प्रिंसिपलों की फटकार चुनकर,
अभिभावको से सुनी औकात गुनकर,
छात्रों के दिए उपनाम पहनकर
वे पढ़ाते रहे !

घंटा लगने से पहले,
घंटा लगने के बाद,
घंटे के बीच में,
बिन घंटे के,
बिन टंटे के,
वे पढ़ाते रहे !

कभी डाक्टर को,
कभी कलक्टर को,
कभी सीए को,
कभी इंजीनियर को,
वे पढ़ाते रहे !

असैंबली में,
रिसैस में,
छुट्टी के बाद,
त्यौहारों में,
व्यवहारों में,
सैमिनारों में,
पंचायत की चौपालों में,
भीड़ भरे बाजारों में,
वे पढ़ाते रहे !

सितार पर,
मीनार पर,
अंकों के बवाल पर,
रंगों से भरे सवाल पर,
धरती के बिगड़े हाल पर,
दुनिया की टेढ़ी चाल पर,
इंसानी फितरत के जाल पर,
वे पढ़ाते रहे!

संग खड़िया के,
ट्विटर चिड़िया पे,
ब्लैक  बोर्ड पर,
पोडियम मोड पर,
वे पढ़ाते रहे!

अपने घर में,
पड़ोस के घर में,
नेता के घर में,
अभिनेता के घर में,
चपरासी को,
मंत्री को,
संतरी को,
वे पढ़ाते रहे!
क्योंकि उन्हें विश्वास था कि एक दिन जब
सब पढ़लिख जाएंगें ,
शायद उस दिन वे एक पूरे दिन की छुट्टी
वेतन सहित , स-सम्मान पाएंगें !

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