एक चुटकी सिंदूर


 

आखिर तुम्हारा क्या है मेरे पास ?
जो मुझपर इतना हक जमाते हो _
न तुमने मुझे जन्म दिया ,
न तुमने मुझे बड़ा किया _
न पढ़ाया न ही लिखाया ,
डर पर कैसे पानी है विजय वो सिखाया ,
मैं खुद को पहचान और समझ सकूं इस काबिल ही बनाया !!

फिर क्यों मुझपर अपना अधिकार जताते हो ?

मुझे जन्म मेरी माँ ने दिया _
सुरक्षा पिता ने दिया ,
भाई बहनों ने लाड़ दिया !
मुझे इस काबिल बनाया कि मैं _
अपना घर छोड़ दूसरे घर को संभाल सकूं  !
पिता ने कभी भी उनके खिलाये निवाले का ,
एहसान नहीं जताया !!
जी करता था तो करती थी काम _
नहीं करता था तो भी किसी ने काम के लिए नहीं सुनाया !

फिर क्यों तुम मुझे ताने सुनाते हो ?

अरे हाँ याद आया _
है तुम्हारा दिया कुछ मेरे पास जिसे सदियों से ,
एक पुरुष देता आया है औरत को _
वो है एक चुटकी सिंदूर ,
जिसे वो चाहे न चाहे लेना _
वो मांगे न मांगे किसी से ,
पर उसे दिया जाता है  !
"रिवाज जो है " !!
तुमने भी दी है मुझे भेंट स्वरूप एक चुटकी सिंदूर _
जिसे मैंने स्वेच्छा के स्वीकार किया ,
सिर्फ इस भरोसे पर कि तुम भी उतना ही दोगे_
मुझे मान जितना पिता ने दिया  !
उतना ही करोगे लाड़ जितना माँ ने किया !!
पर जाने क्यों तुम्हें मुझमें बस खोट ही नजर आती है _
दिनभर करूँ काम तो तुम्हें नहीं पड़ता फर्क ,
पर मेरे मोबाइल और आराम करने से
तुम्हारी त्योरियां चढ़ जाती है !
सबके सपनों के लिए लाख करू बलिदान ,
तो तुम्हें उसमें भी चाल नजर आती है !
किसी से कर लूं बात तो उंगली मेरे चरित्र पर उठ जाती है!

आखिर क्यों इतना मुझपर अपना रौब दिखाते हो ?
आखिर क्यों हरबार मेरी नजरों में तुम गिर जाते हो ?

मेरी मांग में भरे सिंदूर के अलावा ,
और क्या है तुम्हारा मेरे पास _
जो तुम हर बार मेरे स्त्रीत्व को कुचल जाते है !
बिन मुझे छुए अपने शब्दों से घाव गहरे दे जाते हो !!

आखिर क्यों हर बार मुझे , मैं पराये घर में हूँ _
का एहसास कराते हो ,
आखिर क्यों नहीं तुम पुरुष बन जाते हो !

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